निवेदक- मूलनिवासी जनक्रांति संगठन
पुष्पराजगढ़ संरक्षक महोदय व पदाधिकारी गण
सामाजिक परिवर्तन के महानायक पेरियार
ललई सिंह यादव के जन्मदिन पर शत शत नमन।
सच अक्सर कड़वा लगता है। इसी लिए सच
बोलने वाले भी अप्रिय लगते हैं। सच बोलने वालों को इतिहास के पन्नों में दबाने का प्रयास
किया जाता है, पर सच बोलने का सबसे बड़ा लाभ यही है कि वह खुद पहचान कराता है और घोर
अंधेरे में भी चमकते तारे की तरह दमका देता है। सच बोलने वाले से लोग भले ही घृणा करें,
पर उसके तेज के सामने झुकना ही पड़ता है। इतिहास के पन्नों पर जमी धूल के नीचेे ऐसे
ही एक तेजस्वी तारे ललई सिंह यादव का नाम दबा है।
ललई सिंह यादव ऐसे योद्धा का नाम है,
जिसने शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की और उपेक्षितों को उनका हक दिलाने के लिए जीवन
समर्पित कर दिया। जिला कानपुर के गांव कठारा रेलवे स्टेशन झींझग के रहने बाले गज्जू
सिंह यादव और मूला देवी के घर 1 सिंतबर 1911 ई. को जन्मे ललई सिंह यादव पर अपने पिता
का पूरा प्रभाव था। आर्य समाजी पिता गज्जू सिंह गलत बात बर्दास्त नहीं करते थे। सही
बात के पक्ष में किसी का भी विरोध करने लगते थे। उस दौर में उस गांव में परंपरा थी
कि दलित के घर बेटा होने पर ढोलक नहीं बजाने दी जाती थी। इस पुरानी परंपरा को गज्जू
सिंह ने ही तुड़वाया। ऐसे पिता के बेटे ललई सिंह यादव ने सन 1926 में हिंदी व सन
1928 में उर्दू भाषा से मिडिल तक पढ़ाई की। पढ़ाई के बाद 1929 में वह वन विभाग में
गार्ड की नौकरी करने लगे। गलत बात का तत्काल विरोध कर देते थे। जिससे समकक्ष सहकर्मियों
में तो लोकप्रिय हो गये पर सजा के तौर पर कई बार निलंबित होना पड़ा। इस बीच 1931 में
कानपुर के गांव जौला का पुरवा रूरा निवासी सरदार सिंह यादव की पुत्री दुलारी देवी से
उनका विवाह हो गया। विवाह के बाद उन्होंने 1933 में सशस्त्र पुलिस बल की नौकरी के लिए
आवेदन किया तो चुन लिये गये। सिपाहियों की हालत उनसे नहीं देखी गयी और यहां भी उन्होंने
पुलिस के रहन-सहन को लेकर आवाज बुलंद करनी शुरु कर दी। विद्रोह के चलते 1935 में ललई
सिंह यादव को बर्खास्त कर दिया गया। बाद में अपील पर सुनवाई हुई और एचजी वाटर फील्ड
डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने बहाल कर दिये। 1936 में चीफ प्रोसीक्यूटिव इंस्पेक्टर
पुलिस हाईकोर्ट एंड अपील डिपार्टमेंट में उनका तबादला कर दिया गया। एक वर्ष बाद वह
हेड कांस्टेबिल के पद पर प्रोन्नत कर दिये गये। उपेक्षित व शोषित लोगों के अधिकारों
की लड़ाई लड़ते हुए कई साल बीत गये। 1942 में कांग्रेस का करो या मरो आंदोलन जोर पकड़
रहा था। उसी दौरान 1946 में मध्य प्रदेश में कांग्रेसी नेता भीखम चंद की अध्यक्षता
में बैठक हुई। जिसमें नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एवं आर्मी संघ की स्थापना की गयी
और ललई सिंह यादव सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुन लिये गये। वह पुलिस व आर्मी के जवानों
को सुविधायें देने की लड़ाई लडऩे लगे तभी उन्हें साथियों के साथ जेल भेज दिया गया।
पर ललई सिंह यादव ने जेल में भी आंदोलन छेड़ दिया और कैदियों की दशा को लेकर जंग शुरु
कर दी। इस बीच 1925 में उनकी माता मूला देवी, 1939 में पत्नी दुलारी देवी, 1946 में
बहिन शकुंतला और 1953 में पिता गज्जू सिंह का निधन हो गया। जिससे ललई सिंह यादव टूट
गये और उनके अंदर सन्यासी जैसे भाव पैदा हो गये। सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक एवं धार्मिक
कार्याे में वह बढ़-चढ़ कर रुचि लेने लगे। ललई सिंह यादव ने सामाजिक व धार्मिक असमानता
को लेकर जंग शुुरु कर दी। स्पष्टवादी, निर्भीक और कडक़ती आवाज से प्रभावित होकर आरपीआई
के नेता कन्नौजी लाल ने उन्हें पार्टी में आने का निमंत्रण दिया तो उन्होंने पार्टी
की सदस्यता ले ली। वह बौद्ध धर्म में जाने के इच्छुक थे पर उनका प्रण था कि जिस गुरु
से बाबा साहब अंबेडकर ने दीक्षा ली है उसी गुरु से वह दीक्षा लेंगे। उनके इस प्रण के
चलते ही दीक्षा कार्यक्रम काफी दिनों तक टलता रहा। 21 जुलाई 1967 को उन्होंने कुशीनगर
जाकर भदन्त चन्द्रमणि महास्थिविर से दीक्षा लेकर
बौद्ध धर्म भी स्वीकार कर लिया। 1964-65 में आरपीआई विखरने लगी तो उन्होंने
पार्टी छोड़ दी पर वह उपेक्षित वर्ग की आवाज बुलंद करने में जुटे रहे। इसी दौर में
ब्राहमणवाद के घोर विद्रोही के रूप में रामास्वामी पेरियार ने दक्षिण भारत से आवाज
बुलंद कर रखी थी। उनके द्वारा लिखित द रामायन-ए ट्रू रीडिंग की बहुत चर्चा हो रही थी।
ललई सिंह यादव रामास्वामी पेरियार के सपंर्क में आये और उनकी रामायण का हिंदी अनुवाद
करने का आग्रह किया। अनुमति मिलते ही उन्होंने सच्ची रामायण नाम से हिंदी संस्करण निकाल
दिया। इस रामायण के छपते ही हिंदू समुदाय, खास कर ब्राहमणों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त
की तो प्रदेश सरकार ने इस रामायण पर प्रतिबंध लगाते हुए रामायण की प्रतियां जब्त करा
लीं। ललई सिंह यायव ने अदालत की शरण ली। हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट से ललई सिंह यादव
की ही जीत हुई। उनकी सच्ची रामायण को प्रतिंबध मुक्त कर दिया गया। इस रामायण में भगवान
श्रीराम को लेकर आपत्तिजनक बातें कही गयी हैं। उन्हें शूद्रों का द्रोही करार देते
हुए दक्षिण भारतीयों का भी दुश्मन बताया गया है। इसी तरह उनकी किताब सच्ची रामायण की
चाभी को भी प्रतिबंधित कर दिया गया पर अदालत से ललई सिंह यादव ही जीते। उन्होंने शोषितों
पर धार्मिक डकैती, शोषितों पर राजनीतिक डकैती, अंगुलिमाल नाटक, संत माया बलिदान नाटक,
शम्बूक बध नाटक, एकलव्य नाटक, नाग यज्ञ नाटक व सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो जैसी
क्रांतिकारी किताबों की रचना की। 24 दिसंबर 1983 ई. को रामास्वामी पेरियार का निधन
हो गया। ललई सिंह यादव शोक सभा में पहुंचे तो चर्चा के बाद विचार हुआ कि हमारा अगला
पेरियार कौन?... भीड़ से आवाज आयी ललई सिंह यादव, तो ललई सिंह यादव पूरी तरह पेरियार
के कार्य को ही आगे बढ़ाने लगे। ललई सिंह यादव हिंदू धर्म को उधार का धर्म और बौद्ध
धर्म को नकद का धर्म बताते थे। उन्होंने बौद्ध धर्म को नकद का धर्म बता कर काफी चर्चित
किया। तर्क देते हुए कहते थे कि विश्व के सभी देशों का कानून बौद्ध धर्म पर आधारित
हैं। इस लिए सच्चा धर्म बौद्ध धर्म ही है। वे कहते थे कि आज अच्छे कार्य करो तो अगले
जन्म में बेहतर परिणाम मिलेंगे पर बौद्ध धर्म में अच्छे काम करो और तत्काल अच्छे परिणाम
भी ले लो। उनकी भाषा में जा हाथ देब और वा हाथ लेब। ललई सिंह यादव सिर्फ उपदेश ही नहीं
देते थे। वह वैरागी भाव में निर्भीक और निडरता के साथ अपने शुभचिंतकों पर भी कटाक्ष
करते थे। 1987 में अपनी समस्त संपत्ति कानपुर के अशोका पुस्तकालय को दान दे दी।सामाजिक
परिवर्तन का यह साहसी योद्धा 7 फरवरी 1993 को शरीर छोड़ गया।
आज मेरा मूड बहुत खराब हैं
साथियो बुरा मत मानिएगा बहुत दिनों
से एक बात मैं कहना चाह रहा था । थोड़ा कठोर है लेकिन यही सच्चाई भी है । और इसे स्वीकार
करना ही होगा । अक्सर आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी महिलाओं के साथ बाहरी दिकू लोग
अच्छा व्यवहार नही करते ।सीधे सरल होने के कारण उनके साथ मनमाना व्यवहार करते हैं ।लेकिन
कोई इसके विरुद्ध कुछ कहना नही चाहता। मुझे यह बहुत बुरा लगता है । बस में ,हाट में
,बाजार में , सार्वजनिक स्थानों में आदिवासी समाज के महिलाओं एवं युवतियों के साथ दुर्व्यवहार
अब शायद कोई आम बात हो गई है ! कई ऐसे गंभीर मामले भी हुए है जिनमे आदिवासी महिला के
साथ क्रूरतापूर्ण तरीके से उनके साथ व्यवहार किया । इसका सबसे बड़ा उदाहरण छतीसगढ़ की
बहन सोनी सोरी थी । आज वह अपने और अपने समाज के बहनो के लिए अकेला संघर्ष कर रही है
। झारखंड ,छतीसगढ़ , मध्यप्रदेश , आदि राज्यो में आदिवासी महिलाओं के साथ कितनी अमानवीय
व्यवहार किया जाता है यह बात अब किसी से छुपी हुई नही है । इसके लिए कौन जिम्मेदार
है ?
गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासी माँ
बहनो के साथ दुर्व्यवहार होने के लिए आदिवासी युवा वर्ग जिम्मेदार है । मैं ये बात
बड़ी सोच समझ कर बोल रहा हूँ।अगर आदिवासी युवाओं के खून में इतनी उबाल और गर्मी होता
तो वो हर एक हाथ ,पैर जो हमारे आदिवासी समाज की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने के
लिए उठता उसको काट कर फेंक दिया जाता तब इसका डर ऐसा होता कि कोई भी बाहरी लोग हमारे
आदिवासी महिला के साथ रेप ,छेड़खानी या दुर्व्यवहार करने की जुर्रत ही नहीं होता । लेकिन
दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आदिवासी समाज के युवा लोग चुप रहते हुए फट्टू और फुकरे
बन गए हैं।
जागों आदिवासी वीरो जागो ...हमारे
आदिवासी महिलाओं के अस्मत और उसका सम्मान को अपना सम्मान समझो और अगर कोई हमारे माता
बहनो के अस्मत के साथ खेलने की कोशिश करे तो ऐसे हरामखोर लोग बचना नही चाहिए ।
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